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मौलाना अबुल कलाम आज़ाद: जीवन परिचय 

जब भी भारत में महान नेताओं और समाज मे परिवर्तन करने वालों को याद किया जाता है, तो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के योगदान को कोई नहीं भूल सकता।

अबुल कलाम आज़ाद एक प्रसिद्ध शिक्षाविद्, इस्लामी धर्मशास्त्री और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे |

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे।

यह लेख मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जी की एक छोटी जीवनी है, यहाँ हम आपको उनके विचार, जीवन की उपलब्धियों के साथ-साथ उनके भारतीय राजनीति में उनकी भूमिका के बारे में चर्चा करेगे|

कौन थे मौलाना अबुल कलाम आजाद?

मोहनदास करमचंद गांधी जवाहरलाल नेहरू, खान अब्दुल गफ्फार खान, सरदार पटेल और मौलाना अबुल कलाम आजाद के साथ ए.आई.सी.सी. बैठक, दिल्ली, 1947।
मोहनदास करमचंद गांधी जवाहरलाल नेहरू, खान अब्दुल गफ्फार खान, सरदार पटेल और मौलाना अबुल कलाम आजाद के साथ ए.आई.सी.सी. बैठक, दिल्ली, 1947।
जीवन परिचय बिंदुमौलाना अबुल कलाम आज़ाद जीवन परिचय
पूरा नामअबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन
जन्म11 नवम्बर 1888
जन्म स्थानमक्का, सऊदी अरब
पिता मुहम्मद खैरुद्दीन
पत्नीजुलेखा बेगम
मृत्यु22 फ़रवरी 1958 नई दिल्ली
राजनैतिक पार्टीभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
नागरिकताभारतीय
अवार्डभारत रत्न
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद परिचय

आजाद का जन्म 11 नवंबर, 1888 को मक्का सऊदी अरब में हुआ था।

मौलाना अबुल कलाम आजाद का असली नाम अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन है. आजाद एक पढ़े लिखे मुस्लिम विद्वानों या मौलाना वंश में जन्मे थे।

आजाद के पिता मोहम्मद खैरुद्दीन एक बंगाली मौलाना थे, जो बहुत बड़े विद्वान थे.

इनकी माता अरब की थी, जो शेख मोहम्मद ज़हर वात्री की बेटी थी, जो मदीना में एक मौलवी थी, जिनका नाम अरब के अलावा बाहरी देशों में भी हुआ करता था|

मौलाना खैरुद्दीन अपने परिवार के साथ बंगाली राज्य में रहा करते थे, लेकिन 1857 के समय हुई विद्रोह की लड़ाई में उन्हें भारत देश छोड़ कर अरब जाना पड़ा, जहाँ मौलाना आजाद का जन्म हुआ.

मौलाना आजाद जब 2 वर्ष के थे, तब 1890 में उनका परिवार वापस भारत आ गया और कलकत्ता में बस गया|

13 साल की उम्र में मौलाना आजाद की शादी जुलेखा बेगम से हो गई.

मौलाना अबुल कलाम आज़ादी की जीवनी

शिक्षा और प्रभाव

उनकी आरंभिक शिक्षा इस्लामी तौर तरीकों से हुई। घर पर या मस्ज़िद में उन्हें उनके पिता तथा बाद में अन्य विद्वानों ने पढ़ाया।

पहली भाषा के रूप में अरबी में निपुणता के बाद ,आज़ाद ने बंगाली , हिंदुस्तानी , फ़ारसी और अंग्रेजी सहित कई अन्य भाषाओं में महारत हासिल करना शुरू कर दिया.

इस्लामी शिक्षा के अलावा उन्हें दर्शनशास्त्रइतिहास तथा गणित की शिक्षा भी अन्य गुरुओं से मिली।

आजाद को पढाई का बहुत शौक थे, वे बहुत मन लगाकर पढाई किया करते थे,

16 साल मे उन्हें वो सभी शिक्षा मिल गई थीं जो आमतौर पर 25 साल में मिला करती थी।

लेखन और पत्रकारिता

आजाद ने कम उम्र में ही पत्रकारिता के अपने प्रयास शुरू कर दिए थे।

1899 में ग्यारह साल की उम्र में उन्होंने कलकत्ता में एक काव्य पत्रिका नारंग-ए-आलम का प्रकाशन शुरू किया |

1900 में पहले से ही एक साप्ताहिक अल-मिस्बाह के संपादक थे। 

उन्होंने उर्दू पत्रिकाओं और मखज़ान, एहसानुल जैसी पत्रिकाओं में लेखों का योगदान दिया ।

उन्होंने एक मासिक पत्रिका, लिसन-उस-सिदक निकाली । यह दिसंबर 1903 से मई 1905 के बीच धन की कमी के कारण बंद होने तक प्रकाशित हुआ करती थी| 

इसके बाद वह शिबली नोमानी के निमंत्रण पर नदवातु एल-उलामा के इस्लामी धर्मशास्त्रीय पत्रिका अल नदवा में शामिल हो गए।

उन्होंने अप्रैल 1906 से नवंबर 1906 तक अमृतसर के एक समाचार पत्र वकील के संपादक के रूप में काम किया।

वे थोड़े समय के लिए कलकत्ता चले गए जहाँ वे दार-उल-सल्तुनत से जुड़े थे।

वे कुछ महीनों के बाद अमृतसर लौट आए और वकील के संपादकत्व को फिर से शुरू किया , जुलाई 1908 तक वहां काम करना जारी रखा।

भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मौलाना आज़ाद का  महत्वपुर्ण  योगदान रहा। मौलाना आज़ाद  1931 में धारासन सत्याग्रह के प्रमुख आयोजक थे।

धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और हिन्दू-मुस्लिम एकता को उन्होंने बढ़ावा दिया ।

1945 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद पर कार्य किया।

अन्य नेताओं के साथमौलाना आज़ाद को तीन साल की जेल की सज़ा हुई।

स्वंतत्र भारत की अंतरिम सरकार में आज़ाद शामिल थे। भारत विभाजन की हिंसा के समय वे सांप्रदायिक सौहार्द्र बढ़ाने का कार्य कर रहे थे।

 शुरू से ही मौलाना यह जानते थे कि अगर भारत के लोग आपस में मिलजुल कर रहेंगे तभी वे एक मज़बूत राष्ट्र बना सकेंगे।

मौलाना अबुल कलाम आजाद भारत प्रेम

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के भाषण

महात्मा गांधी की तरह उनके लिए भी लोगों की एकता से बढ़कर कुछ और प्यारा नहीं था।

जिस तरह उनके गुरु ने उसी ध्येय के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया था |

उसी तरह मौलाना भी राष्ट्र की एकता के लिए सब कुछ न्योछावर कर देने के लिए तैयार थे।  

दुर्भाग्यवश देश में कुछ लोग ऐसे थे जो इस तरह की एकता नहीं चाहते थे। स्वाभाविक ही है कि गांधी जी की तरह मौलाना के भी ऐसे ही लोग ज़िन्दगी भर कट्टर दुश्मन बने रहे।

उन लोगों ने मौलाना की हंसी उड़ाई, उन्हें गालियाँ दीं, उन्हें तरह-तरह के नाम और ताने दिये, उनका मज़ाक उड़ाया।

लेकिन मौलाना ने इन लोगों के साथ कभी समझौता नहीं किया।

मौलाना आज़ाद ने 1935 में मुस्लिम लीग, जिन्ना और कांग्रेस के साथ बातचीत की वकालत की जिससे राजनीतिक आधार को सुदृढ़ किया जा सके।

जब जिन्ना ने विरोध किया तो मौलाना आज़ाद ने उनकी आलोचना कर उन्हें समझाने में कोई कोताही नहीं बरती।

सन् 1938 में आज़ाद ने गांधी जी के समर्थकों और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस के बीच पैदा हुए मतभेदों में पुल का काम किया।

1940 में लाहौर में हुए अधिवेशन में पाकिस्तान ने जब मुस्लिम लीग की मांग रखी, मौलाना आज़ाद उस समय कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे।

उन्होंने जिन्ना के दो राष्ट्र सिद्धांत की खूब खबर ली। मौलाना आज़ाद ने यह मानने से इंकार कर दिया कि मुस्लिम और हिन्दू दो अलग राष्ट्र हैं।

इस्लाम धर्म के इस विद्वान् ने इस्लाम के आधार पर बनने वाले देश को अस्वीकार कर दिया।

उन्होंने सभी मुसलमानों से हिंदुस्तान में ही रहने की बात कही।   

मौलाना आज़ाद और “भारत छोडो आंदोलन

मौलाना आज़ाद महात्मा गाँधी जी के साथ

आज़ाद के अध्यक्ष रहने के दौरान 1942 में ‘भारत छोडो’ आंदोलन शुरू हुआ।

उन्होंने देश भर की यात्रा की और जगह-जगह लोगों को राष्ट्र होने का अर्थ समझाया और आज़ादी की मशाल को घर-घर तक ले गए।

एक बार राजनीति में आ जाने के बाद मौलाना ने सारी ज़िम्मेदारियों और चुनौतियों को स्वीकार कर लिया।

तीन बार वह कांग्रेस के अध्यक्ष बने।

कांग्रेस नेता

सन् 1923 में वह कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष थे। इसके अलावा सन् 1940 से सन् 1946 तक प्रमुख के नाते अपने आख़िरी सत्र के दौरान उन्होंने छः साल से भी लम्बे अर्से तक कांग्रेस का नेतृत्व किया।

आज़ादी के पहले के दिनों में कांग्रेस के अध्यक्ष के लिए यह सबसे लम्बी अवधि थी।

यही नहीं, कांग्रेस के समूचे इतिहास में यह सबसे ज़्यादा कठिनाइयों का समय भी था।

सन् 1942 में ‘क्रिप्स मिशन’ भारत की आज़ादी और युद्ध में भारत के सहयोग के बारे में चर्चा करने के लिए भारत आया। मिशन असफल रहा।

“भारत छोड़ो” आंदोलन 8 अगस्त सन् 1942 के दिन छेड़ा गया। हज़ारों नर-नारियाँ और सभी बड़े-बड़े नेता जेल गए और बहुत कष्ट झेले।

मार्च सन् 1946 को ब्रिटिश कैबिनेट मिशन भारत आया।

उस मिशन के एक प्रस्ताव के आधार पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और केन्द्र में और अधिकतर राज्यों की विधान सभाओं में उसे विजय मिली। अंतरिम सरकार बनाई गई।

कांग्रेस के अध्यक्ष ही नहीं, बल्कि एक ब़ड़े राष्ट्रीय नेता होने के कारण मौलाना ने बड़े जोश के साथ काम किया और दूसरे नेताओं के साथ मिलकर एक बड़े ही मुश्किल समय में देश का नेतृत्व किया।

वास्वत में, कांग्रेस के लोग चाहते थे कि वह अगले सत्र के लिए भी कांग्रेस के अध्यक्ष रहें।

लेकिन उन्होंने उस पद के लिए जवाहर लाल नेहरू का नाम सुझाया।

कांग्रेस के नेताओं में मौलाना को उनकी अन्य महान् विशेषता के लिए भी याद किया जाता था।

शिक्षा मंत्री के रूप में विरासत

शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद

भारत को अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, मौलाना आज़ाद ने भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में पदभार संभाला।

बहुत से लोग अब भी मानते हैं कि आजाद भारत में अल्पसंख्यकों के प्रति पक्षपाती थे।

हालाँकि, उन्होंने भारत में शैक्षिक परिदृश्य के समग्र विकास की दिशा में काम किया। उन्होंने निम्नलिखित संस्थानों की स्थापना की-

१- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग
२- आईआईटी खड़गपुर
३- माध्यमिक शिक्षा आयोग
४- अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद
५- भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद

मौलाना अबुल कलाम आजाद संस्कृति और परिष्कार के व्यक्ति थे। उन्होंने हिंदी में तकनीकी शब्दों को शामिल करने की दिशा में भी काम किया।

उन्हें राष्ट्रीय विकास में उनके योगदान के लिए 1992 भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

इसके अलावा, उनके नाम पर कई संस्थानों में इस स्वतंत्र विचारक की विरासत जीवित रही-

  • नई दिल्ली में मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज
  • हैदराबाद, तेलंगाना मे मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय
  • मौलाना आजाद राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान भोपाल, मध्य प्रदेश
  • मौलाना आजाद स्टेडियम जम्मू

अबुल कलाम आज़ाद से सबक

अपने नाम की तरह, मौलाना आज़ाद ने स्वतंत्र सोच का समर्थन किया |

उन्होंने कभी भी अपनी सांप्रदायिक पहचान को मानवता की सेवा और सभी के लिए समान शिक्षा के अपने जुनून में बाधा नहीं बनने दी।

वह अपने शानदार जीवन को देखते हुए कई टीवी शो और सिनेमाई चित्रण का विषय रहे हैं।

उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाते हुए, हमें सांप्रदायिक नफरत को खत्म करने का संकल्प लेना चाहिए।

इंडिया विन्स फ़्रीडम और ग़ुबर-ए-ख़तीर जैसी उनकी कृतियों को पढ़कर भी उनके योगदान पर ध्यान दिया जा सकता है।

अगर किसी को उनकी स्मृति का सम्मान करना है, तो हमें एक जागरूक नागरिक के रूप में सरकार से प्रत्येक नागरिक तक शैक्षिक पहुंच का विस्तार करने का आग्रह करना चाहिए।

चूंकि मौलाना आजाद ने खुद कहा था-

“हमें एक पल के लिए भी नहीं भूलना चाहिए, कम से कम बुनियादी शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है|

जिसके बिना वह एक नागरिक के रूप में अपने कर्तव्यों का पूरी तरह से निर्वहन नहीं कर सकता है।”

निसंदेह हमारे लोकतान्त्रिक समाज मे प्रत्येक वर्ग को समान आवाज देने में मदद करने के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि हम मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के एकता, शांति के पाठ को जीवन मे उतारे।

मृत्यु 

22 फ़रवरी सन् 1958 को हमारे राष्ट्रीय नेता का निधन हो गया। भिन्न-भिन्न-धार्मिक नेता, लेखक, पत्रकार, कवि, व्याख्याता, राजनीति और प्रशासन में काम करने वाले भारत के इस महान् सपूत को अपने-अपने ढंग से याद करते रहेंगे।

इन सबसे बढ़कर मौलाना आज़ाद धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति होते हुए भी सही अर्थों में भारत की धर्मनिरपेक्ष सभ्यता के प्रतिनिधि थे।

वर्ष 1992 में मरणोपरान्त मौलाना को भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

अंतिम विचार

चूँकि मौलाना आज़ाद की मान्यताएँ एक निष्पक्ष और लोकतांत्रिक समाज के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं,

इसलिए उनके विचार भारत के राजनीतिक लक्ष्यों के केंद्र में बने रहे।

आजाद जैसे कई नेता पूरे समय एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत के भाग्य को आकार देने में केंद्रीय थे।

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